विवशता…कलम की!

क्या है विवशता,
कलम की?
हाँ मेरी ही है ये,
किन्तु,
मेरे ही विचारों को
क्यों न उतार पाती,
कागज पर!
उसी कागज पर,
जिस पर ये लिखती
शब्द कई
और करती बातें
दुनिया से,
दुनिया की।
कभी हँसी बाँटती,
कभी दुःख में भी
वाहवाही बटोरती,
कभी सत्य का समर्थन करें,
कभी कल्पनाओं को
वास्तविकता के पटल पर
उकेरती
और
जीवंत कर देती
किसी की सोई हुईं यादें!

आज तक
किए कलम ने
हैं कितने ही चमत्कार!
किन्तु क्यों सूखी है
स्याही इसकी?
क्यों टूटी है
नोंक?
या शायद
रूठी हुई है
स्वयं कलम?
कि क्यों नहीं
बचा है मेरा अधिकार?
मेरे अंतस के
एकाकीपन में भी
क्यों है इसे
मुझपर धिक्कार?

-आरती मानेकर

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