एक दिन चलते-चलते मैंने
सुनी एक पुकार अनजान।
वो देवी स्वरूपा, किन्तु याचिका;
मांग रही थी दया दान!
वास्तव में वो याचिका न थी,
वो थी प्रकृति, महादानी।
दान दिया था उसने जीवन
अम्बर, धरा, अग्नि, हवा, पानी।
निःस्वार्थ दान था, महादान था
मनुष्य ने न माना उपकार।
दूषित किया सम्पूर्ण दान वह
बिगड़ गया प्रकृति का आकार।
आज उसी की करुण कहानी
मैं सबको सुनाने आई हूँ।
मानव मन में प्रकृति प्रेम की
अलख जगाने आई हूँ।
सदन में उमड़ी भीड़
आज है तेरी बारी।
हे युवा! तू जगा मन में
नव चेतना की चिंगारी।
अधिकारों पर मरने वालों
अब कर्तव्य की सुनों पुकार।
हरित वस्त्र और स्वच्छ आवरण
देना है उसको उपहार!
-आरती मानेकर
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U n your poems are awesome. ..i like it ….
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Speechless dear arti its truely amazing poem😊👌👌
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Thanks shaan..😊
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Nice poem dear arti its truly amazing
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Thanks shaan…
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Your poems awesome…
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Awesome poems…
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आरती जी बहुत खूब.
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धन्यवाद
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आपका स्वागत है मोहतार्मा जी.
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