रात्रि के काले नभ में
उड़ता श्वेत खगवृन्द…
और धरा पर चलती हवा
शीतल और मन्द…
मुक्ता जैसे खिले हुए
पौध पर पुष्प कुंद…
उपहार प्रेम का छुपा रही
मेरी मुट्ठी बन्द…
सरिता के तट पर
जल की धारा का स्वर…
उसकी ही सीमा के भीतर
जलक्रीड़ा करते जलचर…
चन्द्र-वधु पर प्रेम जताता,
प्रेमी चकोर बन वर…
त्वरित प्रेम की उपस्थिति से
उत्साहित मेरा उर…
किसी डाल पर बैठ गा रही
सुंदरी कोयल के बोल…
गाँव के अंदर कहीं बज रहें
मनोरंजन के ढोल…
असीम आनन्द का कर प्रदर्शन
बालवृंद करते कलोल…
तुमसे मिलने पर लज्जा से
हुए रक्तिम मेरे कपोल…
चन्द्र के विस्तृत साम्राज्य में
तारों की सुरंग…
टूटे किसी तारे को देख
नन्हें बालक की उमंग…
कल्पना की अनुभूति से
सिंहर उठता है अंग…
यह सब अधिक सुंदर लगता है,
जब होते हो तुम संग…!
-आरती मानेकर ‘अक्षरा’