मिथ्या तथ्य और कल्पनाएँ

“भगवान जी जब अपने बगीचे में फूलों को पानी देते हैं, तब बारिश होती है” या “भगवान जी की मम्मी जब उन्हें मारती है तो वे रोते हैं और बारिश होती है।” ऐसी ही कई कल्पनाएँ आपने भी की होगी, जब आप बच्चे थे, अनभिज्ञ थे। एक दिन मैं विद्यार्थियों को विज्ञान पढ़ा रही थी। पाठ पानी से संबंधित था, जिसमें हमने जल के उपयोग, स्त्रोत, दूषित करने वाले कारक, जल संवर्धन के उपाय और “जल चक्र” समझा। पाठ समझने के बाद बच्चों ने भी बताया कि हम अब तक बारिश को लेकर यही कल्पना करते थे कि भगवान जी ने नल खुले छोड़ दिये हैं। और अब जब हम जल चक्र समझ चुके हैं, तो अपने आप पर हँसी आती है कि हम क्या सोचते थे। गलती बच्चों की सोच की नहीं है, अभिभावक ही बच्चों को ये मिथ्या तथ्य बताते हैं। मिथ्या तथ्य बताने का यह अर्थ नहीं कि वे गलत है, वास्तव में वे या तो बात समझाने में असमर्थ होते हैं या बात बच्चों के स्तर की नहीं होती। खैर छोड़िये, बचपन की बात थी। इन मिथ्या तथ्यों का कोई दुष्प्रभाव भी नहीं है, इसलिए ये बातें हम भी अपने बच्चों को बताएंगे, जब तक उनमें स्वविवेक नहीं आ जाता। सच जान लेने के बाद उनके मन में भी मिथ्या तथ्यों का कोई असर नहीं रह जाएगा।
ये तो हो गया उदाहरण, अब बात करती हूँ वास्तविक व्यवहारिक जीवन की। हमारे साथ भी ऐसा होता है कि कई बार अधूरी जानकारी या अन्य कारणों से कोई व्यक्ति हमें मिथ्या तथ्य बता देता है और हम भी बिना सच बात जाने उस विषय पर भाँति-भाँति की कल्पनाएँ करने लगते हैं। किंतु जब सच बात हमारे सामने आ जाती है तो हम पाते हैं कि हम अब तक गलतफहमी में थे। कई बार तो ऐसी गलतफहमियाँ रिश्तों में दरार पैदा कर देती हैं, जिन्हें भरना मुश्किल हो जाता है। इस समस्या के निराकरण हेतु आवश्यक है कि हम मिथ्या तथ्यों पर विश्वास करके कल्पनाएँ करने के बजाय सच बात जानने का प्रयास करें और स्वविवेक से काम लें।
बात छोटी-सी है और महत्वपूर्ण भी!

-आरती मानेकर

मतदान: लोकतंत्र का त्यौहार

विश्व के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देश भारत में चुनाव का दौर शुरू है। इसी के अंतर्गत मेरे शहर सौंसर (मध्यप्रदेश) में भी आज नगर पालिका अध्यक्ष व पार्षद पद के चुनाव है। अब जैसा कि मैंने शीर्षक में ही लिखा है “मतदान:लोकतंत्र का त्यौहार”, तो देखते हैं मेरे शहर में यह त्यौहार कैसे मनाया जा रहा है।

चुनाव का माहौल तो पिछले एक-डेढ़ महीने से ही है। 15 वार्डों से बने मेरे शहर में करीब 25000 मतदाता हैं। प्रत्याशी नामांकन पत्र भरते हैं, कुछ को सीट मिली, तो किसी को नामांकन वापस लेने को कहा गया, किंतु यह राजनीति है, यहां कौन, किसकी मानता है। अब देखिए, मेरे वार्ड में कुल 5 प्रत्याशी खड़े हुए हैं, जिनमें भाजपा, कांग्रेस के अतिरिक्त अन्य निर्दलीय प्रत्याशी भी है। अब जब बारी प्रचार की आती है, तो मैंने पाया कि उनमें से कुछ को तो मैंने कभी देखा भी नहीं है। बारी-बारी से बार-बार हर प्रत्याशी ने घर में दर्शन दिए। किसी ने बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लिया, तो किसी ने हाथ जोड़कर विनती की। ढोल-नगाड़ों के साथ हर प्रत्याशी ने अपना खूब प्रचार किया। कुछ दलों के जुलूसों में बच्चे भी थें, जिनको चुनाव का अर्थ भी पता नहीं, फिर भी नारेबाज़ी के साथ प्रचार कर रहे। फलां महोदय ने तो प्रचार की चरम सीमा पा ली है। कभी गाड़ी में बैठकर प्रचार किया, तो कभी दूल्हे जैसे सजकर घोड़े पर पूरा शहर घूम रहे। हद तो तब हुई, जब किन्नरों को साथ लिए सड़कों पर नृत्य करने लगे। खैर महोदय जी के जीतने के संबंध में कुछ कहा नहीं जा सकता, किंतु इन्होंने लोगों को हंसाया खूब है।

शहर में टक्कर कांटे की है, क्योंकि जातिवाद की परंपरा आज भी लोगों में चली आ रही है और यहां हर जाति के मतदाता हैं और लगभग हर जाति के उम्मीदवार भी।

उनकी नजरें युवा मतदाताओं पर खासी टिकी है। लेकिन शायद मैं अवयस्क लगती हूँ, तभी उन लोगों को बताना पड़ता है कि इस वर्ष मेरा भी मत है। पिछले मतदान से ही उत्साहित थी मैं इस दिन के लिए।

मैंने तो खूब लुप्त उठाया इस त्यौहार का। लोग जब घर आते और कहते कि, बेटा ध्यान रखना, तब हम भी हंसकर कहते कि, अभी तो हम ध्यान दे रहे हैं, जीतने के बाद कभी-कभार आप भी हम पर.ध्यान देते रहना। कई लोग यह भी पूछते हैं कि, बेटा किसे मत दोगी या दिया है, तब मेरा एक ही उत्तर होता है- जितने वाले को! क्योंकि अगर मेरा मत दिया इंसान नहीं भी जीतता है, तो भी जीतने वाले की सफलता में मेरा मत है, क्योंकि हारने वाले को मैंने मत दिया है। और अगर मेरा मत दिया इंसान जीतता है, तो फिर क्या कहने!

कई लोगों को मैंने देखा, सुबह एक दल के प्रचार में थें, तो शाम को दूसरे दल के जुलूस में। अब यहां कहने वाली बात नहीं, पाठक स्वयं समझदार हैं, कि जब दोनों तरफ से मतलब पूरा होता हो, तो ईमान डगमगा जाए तो भी कोई जिद्दत नहीं। खैर प्रचार कितनों का भी कर लो, मत तो केवल एक को ही देना है।

लोग शायद मतदान को केवल प्रत्याशियों के मतलब की चीज समझते हैं, देश के प्रति स्वयं का कर्तव्य नहीं! तभी तो कुछ लोगों ने प्रत्याशियों से मतदान केंद्र तक जाने का पेट्रोल भी मांग लिया।
एक फायदा मुझे भी हुआ है मतदान से, मेरे विद्यार्थियों को पिछले कुछ दिनों से इसी विषय के बारे में पढ़ा रही थी, संयोग से चुनाव की वजह से मुझे उन्हें समझाने में पर्याप्त उदाहरण मिल गए। सबसे बड़ा दुःख मेरी बहन को हुआ है। आचार संहिता के कारण राष्ट्रीय त्यौहार (स्वतंत्रता दिवस) के उपलक्ष्य में जो कार्यक्रम विद्यालयों में होते हैं,  वो स्थगित कर दिए गए हैं, अन्यथा वह तो पूरी तैयारियों में थी।

चलो एक महीना बित गया, ढोल-नगाड़ों की आवाज के साथ और कल रात को आचार संहिता के साथ-साथ धारा 144 भी शहर में लागू हुई। लेकिन नियमों को तोड़ने वाले लोग कहां मानते हैं, 5 से ज्यादा लोगों के गुट तो कई जगह देखने मिले हैं। कुछ लोग किसी दल के बारे में भ्रामक अफवाह फैला रहे हैं। शहर में चर्चा का एकमात्र विषय है यह चुनाव। यहां तक कि व्हाट्सएप समूहों में भी बस यही चर्चा है। एक विशेष बात यह है कि जो कभी खास दोस्त थें, आज वे दोनों एक-दूसरे के विरोध में चुनाव लड़ रहे हैं।

आज सुबह मेरी नींद रोज की अपेक्षा जल्दी खुली, उत्साह ही वजह है इसकी। नहा-धोकर, तैयार होकर, गाड़ी लेकर मैं निकल पड़ी सुबह 7:30 बजे, घर से मतदान केंद्र की ओर। भीड़ ज्यादा नहीं थी वहां इतने सुबह, तो जल्दी ही मेरी बारी भी आ गई। वहां बैठे चुनाव आयोग के लोगों ने मेरा मतदाता पत्र देखा, उनके पास रखी सूचियों में मेरा क्रमांक जांचा, मेरे हस्ताक्षर लिए, तर्जनी पर स्याही लगाई और आगे बढ़कर ई.वी.एम. मशीन के द्वारा मैंने अपने मत दिए।ह्रदय गति थोड़ी बढ़ी हुई थी,  उत्साह अब गर्व में बदल चुका था और खुशी भी थी। आखिर अपने मताधिकार का प्रयोग करते हुए मैंने देश के प्रति अपने पहले कर्तव्य को निभाया। 19वेंं क्रमांक की मतदाता थी मैं आज।

 सुबह से लोग सबको मतदान केंद्र तक पहुंचाने में लगे हुए हैं, गाड़ियां भी लगी है, सबके चेहरों और कपड़ों में भी आज विशेष चमक है, आखिर त्यौहार की खुशी है। शाम तक यही दौर चलेगा। 16 अगस्त को परिणाम भी घोषित होगा। तब कोई लेख नहीं लिखूंगी, खुशियां मनाई जाएगी उस दिन, प्रजातंत्र की जीत की।
-आरती मानेकर

धर्म-भक्ति-आडंबर-अंधविश्वास

नमस्कार!

इस विषय पर लिखने की काफी दिनों से इच्छा थी, आज अवसर मिला तो लिख लिया।
 जैन धर्म में जन्म लेने के कारण मैं भी जैन हूं, किंतु व्यक्तिगत तौर पर आप मुझे नास्तिक पाएंगे। हां, यह बातें मेरे लिए कदापि मायने नहीं रखती, कि कौन-किस धर्म का है, किंतु इस लेख के संबंध में इस बात का उल्लेख मुझे आवश्यक जान पड़ा। जैन धर्म में कई कड़े नियम है, जैसे नियमित रूप से देव-दर्शन, संध्या से पहले भोजन, आदि-आदि। धर्म एक ऐसा विषय है, जिसे लेकर मेरी मां और मुझमें अक्सर विवाद होते हैं। वो मुझे मंदिर जाने को कहती है, कि लोग क्या कहेंगे? और मैं मंदिर जाती नहीं, क्योंकि लोगों ने कहां किसी को छोड़ा हैं।
आज सुबह का वाकया है। मेरी मां ने टेलीविजन चालु किया और जैन मुनि के प्रवचन सुनने लगी। कुछ शब्द मेरे कानों में भी पड़े, बात रुचिकर लगी, तो मैं भी सुनने लगी। मुनि श्री कहने लगे कि “अगर आप अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देना चाहते हैं, तो बच्चे के मां के गर्भ में आते ही स्वयं अच्छी आदतें अपनाना आरंभ करें। संध्या से पहले भोजन करें, रोज मंदिर जाएं, ताकि बच्चा भी बड़ा होकर ऐसा करे। अगर आप पिता है, मदिरापान करते है या चटपटा खाते है, तो अपने लिए ना सही, किंतु अपनी होने वाली संतान के लिए इन आदतों को छोड़ दें। लोग आपसे पूछेंगे- क्या बात है, आज-कल बड़े धर्मात्मा बने फिरते हो, क्या किसी साधु के प्रभाव में हो? आप हंस के उन्हें उत्तर देना- नहीं-नहीं! साधु तो क्या, मुझे तो भगवान भी स्वयं अपने प्रभाव में नहीं ला सकते, ये तो मेरे होने वाली संतान का प्रभाव है, जिसने मुझे बदल दिया।” बात मुझे अच्छी लगी। मैंने मां को चुटकी लेते हुए कहा कि बंद करो टेलीविजन, क्योंकि यहां सुनी किसी भी बात को आप जीवन में नहीं लाएगी। आपने अगर गर्भ में मेरे रहते यह सब किया होता, तो मैं आज कुछ और होती। बस फिर मां-बेटी की तू-तू-मैं-मैं शुरू हो गई। इसी तरह एक दिन मां ने गलती से श्वेतांबर (जैन धर्म में एक पंथ) मुनि के प्रवचन टेलीविजन पर लगा दिये और कुछ समय बाद स्वयं ही चैनल बदलने लगी कि यह तो श्वेतांबर मुनि के प्रवचन हैं। यह सुनते ही मैं अवाक रह गई कि क्या यही भक्ति है, क्या यही धर्म है! एक भक्त के लिए भगवान के सभी रूप एक जैसे होने चाहिए। क्या फर्क पड़ता है कि प्रवचन किस मुनि के हैं, हैं तो प्रवचन ही। किसी कवि ने कहा भी है कि सोना अगर गलत स्थान पर भी पड़ा है, तो हम उसे त्यागते तो नहीं (केवल उपमा)।

किसी घर में एक जगह दीया जलता है और दूसरी ओर उसी घर में वाद-विवाद, कलह होती है। घर का एक सदस्य मंदिर जाता है, दूसरा शराब के नशे में धुत कहीं पड़ा रहता है। घर में अंधेरा रखकर कोई मस्जिद में दीया नहीं जलाता! वो दीया भी किस काम का, जो हमारे अंदर के अज्ञानता के अंधकार को ना मिटा सके!

 वाट्सअप तो सभी इस्तेमाल करते हैं। ऐसे ही मेरे एक समूह में फलां व्यक्ति ने एक वीडियो डाला। वीडियो में दिखाया गया था कि एक औरत, एक बाबा के पास अपनी समस्या लेकर जाती है कि मेरा पति खूब पैसा उड़ाता है, आदि-आदि।  बाबा ने कहा कि बेटी, तुम्हारे पति को बुरी हवा लग गई है। औरत ने उपाय पूछा तो बाबा ने कहा कि हिंदू धर्म के अनुसार संसार में ३३ कोटि देवी-देवता हैं, तुम मुझे सबके नाम से बस १-१ रुपया दान देना, मैं तुम्हारा काम कर दूंगा। वह औरत चतुर थी, तपाक से बोली- आप मुझे एक-एक कर सबके नाम बताएं, मैं रुपये देती हूं। वीडियो देखकर मेरी हंसी छूट पड़ी और चुंकि मैं उस वीडियो भेजने वाले को व्यक्तिगत रूप से जानती थी, तो मेरी भड़काऊ प्रवृत्ति के अनुसार मैंने कहा कि यही अंधविश्वास है, जो तुम में भी है। वह व्यक्ति भी देवी और बाबाओं पर ऐसा ही (अंध) विश्वास रखता है, किंतु अकर्मण्य है। हो गई फिर तू-तू-मैं-मैं शुरू और उसने समूह छोड़ दिया। कितनी बुरी तरह हावी है न अंधविश्वास हमारे मस्तिष्क पर!

 उपवास! धर्म-भक्ति का एक अभिन्न अंग माना जाता है, किंतु शायद लोग इसके मायने नहीं समझ पाएं हैं। मैंने कई लोगों को कहते सुना और देखा भी है कि आज मेरा उपवास है एक समय का। सुबह साबुदाने की खिचड़ी खाई, अब शाम को भोजन करके उपवास छोड़ना है।  क्या? क्या वास्तव में यह उपवास है? उपवास तो  ‘त्याग’ होता है न? यही मैं जान पाई हूं आज तक! गांधी जी ने उपवास के बारे में कहा था कि- उपवास केवल ईश्वर भक्ति न होकर हमारी आत्मा की शुद्धि का साधन है।” कई लोग अपने आप को भगवान का परम भक्त कहने की होड़ में इस तरह के उपवास रखते हैं। सप्ताह में एक उपवास आपके शरीर को भी संतुलित रखता है और मन को संयमित! मत करो ऐसे उपवास, भगवान नहीं कहते हैं। हां, अगर मन में भाव हो, उन लोगों की तड़प जानने की, जिनको एक समय का भोजन भी नसीब नहीं होता, तो उपवास करो! अच्छा लगता है।
मैं यह नहीं कहती कि मंदिर जाना छोड़ दो, दीया लगाना छोड़ दो, प्रवचन सुनने मत जाओ या उपवास मत करो। करो! बेशक करो! क्योंकि भगवान है। हां, केवल इन बातों को दीखावा या आडंबर बनकर अपने जीवन पर हावी मत होने दो!
मैं यह जानती हूं कि उपरोक्त बातें सभी लोग जानते हैं, मैं तो बस याद दिलाना चाहती थी। यह लेख पढ़कर कई लोगों को बुरा लगा होगा। मैं माफी नहीं मांगूंगी। मेरा तो उद्देश्य ही यह था कि दिल पर बात लगे। क्योंकि जब दिल पर बात लगेगी, तभी तो बात बनेगी।

-आरती मानेकर

 

Life of Teachers

Knowledge has no limits. It never dies. It increases when we share. It needs a medium to stay alive and to go to everyone. Yes , books and Internet are there, but both the things are useless until we have a teacher. Teacher is a person, who not only gives us the bookish knowledge, but one who teaches us to live the life and to adjust in the world.
It is said, “teachers are the builders of the nation”. Yes, it’s damn true. They are making our future, but they face many problems in this way. Life of a teacher is not easy. They have to study before teach us and make sure that the knowledge they are giving us is accurate. Teachers have to spend most of their nights planning,  their mornings explaining, their afternoons correcting, their years encouraging, their lives stressing and it’s all For our future.
Teaching is an addiction. Once someone starts teaching, then he/she always think about what to teach tomorrow, how to teach etc. And in this thought they spend their days and nights. A teacher can’t take a single leave, because a whole class depends upon him/her.
It’s having fun and pleasure to teach nursery students, similarly it’s having risk and tension to teach students of 15-20. This is the age of being matured. It’s a task for teachers to make these students able to take correct decisions by their teaching. This is the age when students get attached with teachers. I myself as a student got attached with my teachers.
Teachers have to balance themselves in the class, because there is a number of students with different minds and thoughts and different intelligence level. It’s really very tough to tie the class in one sound. To satisfy the students with correct knowledge is really pleasing for teachers.
Teachers never say to respect them, the only  happiness, we the students can give to our teachers is by giving our results at our best and by becoming successful in our lives. Because as our teachers are working hard for us, so it’s our duty to do the same for them.
I myself want to become a teacher, because the knowledge of a teacher never ends. Knowledge is worthless without teachers.
-ARTI MANEKAR

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