मूल बिंदु

तुम और मैं
अनन्त अंतरिक्ष में कहीं स्थित
दो बिंदु हैं।
मैं विस्तृत होकर तुमसे मिलूँगी
और हम एक होकर
रेखा कहलाएंगे…

हमारा विस्तार
एक समतल होगा
जिसके कोनों पर होंगी
हमारी संतानें…

ऐसे बहुत से समतलीय परिवार
मिलकर बनाएंगे
त्रिविमीय समाज।

जिस प्रकार
एक बिंदु
ज्यामिति की
समस्त रचनाओं का मूल है,
वैसे ही
तुम और मैं
मिलकर रच सकते हैं
एक समूचा संसार…

-आरती मानेकर ‘अक्षरा’

🖤❤️

प्रतिरोध

मैं उससे प्रेम करती हूँ,
तो एक दिन उसके पास बैठी।
अगले दिन मैंने उसका हाथ पकड़ा।
फिर किसी दिन
मैंने चूमा उसका माथा,
उसने नहीं किया प्रतिरोध…
इसे उसकी सम्मति समझकर
मैंने फिर किसी रोज़
चूमे उसके कपोल और अधर
और जड़ दिए कुछ चुम्बन
उसकी गर्दन पर…
क्योंकि नहीं किया जा रहा था प्रतिरोध…
एक दिन मन किया सो
चूम लिया मैंने उसका सीना,
वहीं जहाँ रहता है दिल…
कांपने लगा वो और झटककर मुझे
उसने तब किया मेरा प्रतिरोध!
उसे मुझसे प्रेम नहीं है,
प्रेम हो जाने का भय है…!
-आरती मानेकर ‘अक्षरा’

कल्पनाओं में बसने वाले से…

मेरी कल्पनाओं में बसने वाले
ओ नीले चश्मे वाले लड़के!
तुम लेने लगे हो आकार शायद
मेरी कल्पना से बाहर
वास्तविकता में कहीं!
अनुभूति होने लगी है मुझे
तुम्हारे अस्तित्व की इस संसार में कहीं।

मैं कल्पना करती हूँ-
तुम्हारे साथ रोज मंदिर जाने की
और तुम्हें भगवान को पाते देखा है मैंने।
मेरी कल्पना में तुम एक आदर्श शिक्षक हो…
तुम्हें मग्न होकर पढ़ाते देखा है मैंने।
मैं सोचती हूँ हमारी पढ़ने की आदतें मेल खाए…
तुमसे जब भी मिली, तुम्हें किताबों में गुम पाया है मैंने!
मैं कॉफ़ी पीने जाती हूँ तुम्हें विचारों में साथ लेकर…
तुम्हें कॉफ़ी पसन्द है, सो एक कप और मँगवाया है मैंने।
तुम्हें बच्चा मानकर अपना ममत्व लुटाती हूँ कल्पना में…
असल में तुम्हें बच्चों का-सा पाया है मैंने।
कविताएँ लिखते हो मेरे लिए मेरे सपनों में तुम…
ग़ज़ल सुनते-गुनगुनाते तुम्हें पाया है मैंने।
“मैं एक अच्छी माँ बनूँगी”
मेरी इस भावना को आधार देता है तुम्हारा कथन कि
“मैं एक अच्छा पिता बनूँगा”,
इसपर तुम्हें अपना-सा पाया है मैंने।
मेरे लिए सुकून जीवन की मूलभूत आवश्यकता है!
तुम्हें सुकून से मुस्कुराते पाया है मैंने।
मैं सोचती हूँ तुम प्रेम से ज़्यादा सम्मान करो मेरा…
और तुमसे ही सर्वाधिक सम्मान पाया है मैंने।

तुम मेरी कल्पनाओं से
ज्यों के त्यों बाहर आए!
तुम्हारा होना उदाहरण है कि
जटिल से जटिल कल्पना भी
सत्य हो सकती है।

मैं अपनी कल्पनाओं में
तुमसे ख़ूब प्रेम करती हूँ,
अनन्त और भरपूर करती हूँ।
कदाचित वास्तव में इतना ना किया जा सके!
किंतु तुमपर लिखीं मेरी काल्पनिक कविताएँ पढ़कर
सम्भव है-
तुम्हें प्रेम हो जाएगा मुझसे
और इस तरह मेरी कल्पना
जीवंत हो उठेगी!
-आरती मानेकर ‘अक्षरा’

तिलक लगाओ

आध्यात्म कहता है-
प्रयागराज के संगम की भाँति
तुम्हारे मस्तक पर
है त्रिवेणी नाड़ियों की।
वहीं गुरुस्थान है,
वहीं आज्ञाचक्र।
पवित्र होते हैं
संगम सारे,
उन्हें पूज्य बनाओ।
तुम तिलक लगाओ।

विज्ञान कहता है-
तुम्हारे ललाट पर
लगे हुए कुमकुम को
जब छुएगा सूर्य
अपनी तीव्र रश्मियों से,
भर देगा वो तुम्हें
भरपूर ऊर्जा से
और मन को मिलेगी
अत्यावश्यक शांति।
सो उपक्रम करो ये
कि तुम तिलक लगाओ।

श्रृंगार कहता है-
तुम्हारे भाल पर लगा
वो लाल टीका
तुम्हारी सुंदरता का
केंद्रीय आकर्षण है।
तारों भरे आकाश में भी
जैसे चकोर ढूँढता है
केवल चन्द्र को!
दृष्टि बाँधता है-
तुम्हारा कुमकुम वैसे ही!
सो तुम तिलक लगाओ।

प्रेम कहता है-
रहने दो ये सब,
पास आओ!
मस्तक पर कर लेने दो
चुम्बन का तिलक!
जो देगा तुम्हें
शांति, प्रसन्नता
और अपनापन।
प्रेम, संसार की
सबसे पवित्र पूजा,
सबसे तीव्र ऊर्जा
और सबसे सुंदर श्रृंगार है।

-आरती मानेकर ‘अक्षरा’

व्यक्तिगत सम्पत्ति

मैं तुम्हारे साथ
किसी ऊँचे पर्वत पर जाकर
अपनी आवाज़ की उच्चतम क्षमता से
अपने प्रेम की गवाही दूँगी।
जिसकी तीव्र प्रतिध्वनि
तुम्हारे कानों तक पहुँचकर
तुम्हारे लबों पर मुस्कान ला देगी
और अगले ही क्षण
मैं तुम्हारे पास आकर
तुम्हारे कानों में
एकदम धीरे से
पुनः कहूँगी कि
“मुझे प्रेम है तुमसे!”
जिसकी तरंगें
तुम्हारे हृदय तल तक जाकर
फिर तुम्हारे मस्तिष्क और
समस्त शरीर में
सिंहरन उत्पन्न कर देंगी…
जिसकी प्रतिक्रिया में
तुम भर लोगे मुझे
अपनी बाहों में
और जता दोगे
तुम्हारा मेरे लिए प्रेम…

यह वर्णन पढ़कर
लोग जान जाएंगे कि
प्रेम, केवल दो हृदयों की
व्यक्तिगत सम्पत्ति है!

-आरती मानेकर ‘अक्षरा’

आदर्श मुस्कान

मेरी शांत, निर्जल आँखें,
तुम्हारी चीखती, त्वरित यादें,
प्रयत्न कर रही हैं पुरज़ोर…
एक तुम्हें भुलाने की,
दूसरी मुझे रुलाने की।
प्रबल है साम्य इनके मध्य!
जो नहीं मिलने देता
एक को दूसरे में…
मेरी भावनाओं की
पारगम्यता के बाद भी।
और इसी बीच कोई है
जो तटस्थ होती जा रही है-
मेरे दीर्घवृत्ताकार चेहरे पर
षट्कोण की आकृति बनाने वाली
मेरी आदर्श मुस्कान…
और संसार की समस्त आदर्श वस्तुएँ
कोरी कल्पना हैं!
जिनसे तुलना की जा सकती है केवल!
नहीं ढूँढा जा सकता है-
इनका अस्तित्व…
-आरती मानेकर ‘अक्षरा’

विकल्प

सुनो!
जन्मदिन आ रहा है मेरा।
तुम तोहफ़े में मुझे पायल देना।
वो याद दिलाती रहेगी मुझे
कि उसके घुँघरुओं की हल्की झंकार की तरह
तुम आए थे मेरे जीवन में स्वर लेकर
और तबसे मुझे चलते रहने में आनंद आता है।

तुम देना मुझे कुल ढ़ाई दर्जन चूड़ियाँ,
वो काँच वाली हरी-गुलाबी चूड़ियाँ,
जिनपर लगे होते हैं कुछ चमकदार सितारे।
वो बताएंगी मुझे कि
तुमने बाँध रखा है मुझको
तुम्हारे ही इर्दगिर्द खनकने की आज़ादी देकर।
वो मुझे क्षणभंगुर जीवन में भी
हँसना सिखाएंगी।

तुम मुझे झुमकों की एक जोड़ी भी देना।
जो वक़्त-बेवक़्त छू लिया करेंगी मेरे गालों को,
तो कभी उलझा दिया करेंगी मेरे बालों को।
वो खींचते रहेंगी मेरे कानों की लोलकी,
ताकि सुन सकूं मैं केवल तुम्हारी प्रशंसा के शब्द।

तुम अलग-अलग रंगों की बिंदी की डिबिया भी देना मुझे।
मेरे परिधान से मिलती जुलती रहेंगी
तो अच्छा लगेगा मुझे।
वो सजती रहेंगी मेरे माथे पर हर रोज़ ही
और जाहिर करेंगी
कि इतने श्रृंगार के बाद भी
तुम ही मेरे जीवन का केंद्र और आकर्षण हो
और तुम्हारे होने मात्र से ही मैं
सम्पूर्ण लगती हूँ।

तुम देना मुझे एक ओढ़नी भी,
जिसके किनारों पर लगी हो कोई सजावट।
वो लहराएगी मेरे सीने पर
तुम्हारे अहसास की तरह
और बनी रहेगी मेरे सिर पर
तुम्हारे अधिकार की तरह।
वो द्योतक रहेगी कि
मुझमें सम्मान है
तुम्हारा और तुमसे जुड़े हर रिश्ते का।
और सहेजती रहेगी
मेरी नज़ाकत को।

इनके अतिरिक्त भी तुम कुछ देना चाहो,
तो हाँ!
प्रेम, वक़्त और परवाह के विकल्प उपलब्ध हैं हमेशा
तुम्हारे पास…
-आरती मानेकर ‘अक्षरा’

दिल से दवा करता है…

मेरी आँखों से तो मुझको ना दिखा करता है।
वो कौन है जो मेरे हक़ में दुआ करता है?

है अजूबा कि उसको नाम याद है मेरा!
मेरी हर बात वो कागज़ पे लिखा करता है।

उसे गलती की सज़ा दूं कि माफ कर दूं उसे?
उसकी आदत है कि हरदम वो ख़ता करता है।

जो भी बढ़ता है आगे उसको गिरा देते हैं।
ये जमाना तो किसी का ना भला करता है।

वो तो बसता है मेरी रूह में; मेरे दिल में,
फिर क्यों नज़रों से मेरी वो छिपा करता है?

मैं कि साइल हूँ और इश्क़ की ग़रज मुझको,
दिल का दरिया वो मुझे इश्क़ अता करता है।

रोया हर ग़म के लिए, आँसू कहाँ से लाए?
ग़म इतने हैं कि अब उनपर हँसा करता है।

मेरी हर फ़िक़्र में रहता है वो ही शामिल…
मेरी हर फ़िक़्र को जो पल में हवा करता है।

मुझको इंसान ना होकर के कलम होना था,
कलम को दिल के पास वो तो रखा करता है।

वो किसी वैद्य से क्या कम है, या वो माँ है?
मेरे हर दर्द की जो दिल से दवा करता है।

मैंने ग़ज़लों में दर्द लिक्खा ‘अक्षरा’ लेकिन,
मेरी ग़ज़लों को वो तो पढ़ के हँसा करता है।

-आरती मानेकर ‘अक्षरा’

ऊपर वाला हिस्सा वैसे भी खाली है

हाथ में कंगन, माथे पे बिंदी, कान में बाली है।
उसका मेरा हो जाना, ये पुलाव ख़याली है।

मेरी मोहब्बत को क्यों परखे वो सम्भलकर?
जैसे सौ का नोट, है असली कि जाली है!

उसके दिल की बातों पर मरती हूँ मैं।
ऊपर वाला हिस्सा वैसे भी खाली है।

मैंने कबका शाइर से पागल हो जाना था।
अक़्ल जो है वो दिल की करती रखवाली है।

इतनी मोहब्बत कोई किसी से करता है क्या?
जितनी साहब, उसने मुझसे कर डाली है!

उसके होने से हुआ ख़ुशियों में यूँ इज़ाफ़ा-
लगने लगा है मेरे घर में दीवाली है।

उसकी ज़ानिब, इश्क़ ये सारा मेरी ख़ता है।
उसको बताओ, दोनों हाथों से बजती ताली है।

ग़ज़ल ये पूरी सराबोर है उसकी मोहब्बत से।
लेकिन ये मकता ज़िंदगी-सा खाली है!

-आरती मानेकर

हम नासाज़ हैं एक जमाने से…

हम नासाज़ हैं एक जमाने से…

मिल लो, कि हम ठीक नहीं होंगे, फोन पर हाल बताने से।
देख लो, तुम देर ना करना, हम नासाज़ हैं एक जमाने से।।

तुम आओ तो छू भी लेना, हमारी आदत पर ना जाओ।
तुम नज़र तक तो नहीं हटाते हो, हमारे इतना शर्माने से।।

तुम चूमो, गालों को, लबों को, माथे को, बेहद ही चूमो।
गिना नहीं जाता है इश्क़ को, किसी भी भौतिक पैमाने से।।

हम देने लगें हैं ख़ुद ही इम्तिहान और सबूत सारे।
तुम बाज तो आते नहीं हो, बार-बार हमें आज़माने से।।

धीरे-धीरे बाँधी जाती हैं क़ामयाबी तक की सीढ़ियाँ।
इंसान अमीर नहीं होता, एक ही दिन में लाख कमाने से।।

सब्र रखो, कोशिश करो, कि हम पर हक़ फ़क़त तुम्हारा है।
कोई रोक तो सकता है नहीं, नदी को समंदर में समाने से।।

हमने लिखी है ग़ज़ल, तो तुम तारीफ़ ही कर डालो।
हम भी वाहवाह करेंगे, तुम्हें रोका किसने है फ़रमाने से।।

-आरती मानेकर

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