इन्तहां की घड़ी है!

इन्तहां की घड़ी है,
दिन-रात ऐसे
ना बरसो तुम!
कि मेरा मन
सिंहर उठता है।
हाँ, है पसंद मुझे
बूँद-बूँद बारिश!
पर चाँद को ना
रास आए, कि
रोज उसे कोई
बादल छुपाए।
हर रात जब वो
धरा से मिलने आए,
साथ में चाँद, सितारों
की चुनर लाए।
ऐसे में बादल, तुम रोज
आया न करो,
कि मन मेरा-उसका
तड़पाया ना करो।
एक कोने में बैठके
एक रात जब तुम,
जो चाँदनी रात का
नज़ारा देखो…
तो चाँद भी खुश होके कहे-
खत्म हो चुकी,
इन्तहां की घड़ी है।

-आरती मानेकर

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