स्मृतिशेष

स्मृतियाँ
कहाँ होती हैं विस्मृत
मन-मस्तिष्क से।
विरले हैं हम,
जो करते हैं अभिनय
भूल जाने का
क्षण, घटनाएँ, स्थान और इंसान।

मस्तिष्क के किसी खांचे में
बैठा होता है
बिछड़ा हुआ
कोई मित्र।
पुकारता है,
करता है विनती
मिलन की।

फिर किसी खांचे में
बैठा हो कोई
परिणत अनुरागी,
स्नेह और क्षमा की
याचना करता,
शेष सभी भावों की
समिधा भरता।

वेदनाएँ देती घटनाएँ,
या उद्घाटित करती हैं
एकाकी हंसी का रहस्य।
जीवंत होकर
कहती हैं बारंबार-
वो क्षण जीवन का
जी लो पुनः एक बार।

वो स्थान जहाँ बीतें
जीवन के क्षण अमूल्य
या कहीं से गुजरे हो हम
अनिच्छा से कदाचित।
याद हो आते हैं
यदा-कदा,
बुलाते हैं कि
लौट आओ
एकदा।

स्मृतियाँ
कहाँ होती हैं विस्मृत
मन-मस्तिष्क से
रह जाते हैं
क्षण, घटनाएँ, स्थान और इंसान
हमेशा के लिए
स्मृतिशेष।

-आरती मानेकर ‘अक्षरा’

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