ऊँचा-पक्का सीमेंट का घर…!

मैं रख तो रही थी पानी
मुंडेर पर,
मिट्टी के बर्तन में,
नितदिन!
गर्मी पड़ने लगी है जबसे।
सोचती थी
कि आएंगे पंछीं,
कि चिड़ियाँ करेंगीं
चहलकदमी…
मेरे मिट्टी के कच्चे घर में भी।
किन्तु कदाचित,
मेरी भावनाएँ कमतर थीं
या छोटा पड़ रहा हो
मेरा बर्तन
मिट्टी का!
तभी तो
चिड़ियों ने उचित ना समझा,
आना मेरी मुंडेर पर।

हो सकता है,
यह भी हुआ हो-
ऊँचे-पक्के
घरों के चलते
मेरा छोटा-कच्चा घर
अदृश्य लगता हो।

शहरीकरण…
भाता नहीं है मुझे।
उस पर
सरकार ने बनवाएं है
घर पक्के,
हर किसी के।
ऐसे में ही परसो
मेरे पड़ोसी के घर पर
छत बनी है
सीमेंट वाली!
पानी डाला जाता है
उसपर,
उसको पक्का करने को।
और ये क्या!
मैंने देखा कि-
चिड़ियों का एक वृहद वृन्द
उस छत पर
कलरव करता है,
पानी वहाँ का पीता है,
और उड़ान वहीं से भरता है।
देखकर यह दृश्य
मनोरम!
आनंद, ईर्ष्या और दुःख के
भाव उठें मन में,
सकल रूप से!
और अभीप्सा हुई कि-
अब मैं भी बनवा लूँ,
ऊँचा-पक्का
सीमेंट का घर…!

-आरती मानेकर

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