कल्पनाओं में बसने वाले से…

मेरी कल्पनाओं में बसने वाले
ओ नीले चश्मे वाले लड़के!
तुम लेने लगे हो आकार शायद
मेरी कल्पना से बाहर
वास्तविकता में कहीं!
अनुभूति होने लगी है मुझे
तुम्हारे अस्तित्व की इस संसार में कहीं।

मैं कल्पना करती हूँ-
तुम्हारे साथ रोज मंदिर जाने की
और तुम्हें भगवान को पाते देखा है मैंने।
मेरी कल्पना में तुम एक आदर्श शिक्षक हो…
तुम्हें मग्न होकर पढ़ाते देखा है मैंने।
मैं सोचती हूँ हमारी पढ़ने की आदतें मेल खाए…
तुमसे जब भी मिली, तुम्हें किताबों में गुम पाया है मैंने!
मैं कॉफ़ी पीने जाती हूँ तुम्हें विचारों में साथ लेकर…
तुम्हें कॉफ़ी पसन्द है, सो एक कप और मँगवाया है मैंने।
तुम्हें बच्चा मानकर अपना ममत्व लुटाती हूँ कल्पना में…
असल में तुम्हें बच्चों का-सा पाया है मैंने।
कविताएँ लिखते हो मेरे लिए मेरे सपनों में तुम…
ग़ज़ल सुनते-गुनगुनाते तुम्हें पाया है मैंने।
“मैं एक अच्छी माँ बनूँगी”
मेरी इस भावना को आधार देता है तुम्हारा कथन कि
“मैं एक अच्छा पिता बनूँगा”,
इसपर तुम्हें अपना-सा पाया है मैंने।
मेरे लिए सुकून जीवन की मूलभूत आवश्यकता है!
तुम्हें सुकून से मुस्कुराते पाया है मैंने।
मैं सोचती हूँ तुम प्रेम से ज़्यादा सम्मान करो मेरा…
और तुमसे ही सर्वाधिक सम्मान पाया है मैंने।

तुम मेरी कल्पनाओं से
ज्यों के त्यों बाहर आए!
तुम्हारा होना उदाहरण है कि
जटिल से जटिल कल्पना भी
सत्य हो सकती है।

मैं अपनी कल्पनाओं में
तुमसे ख़ूब प्रेम करती हूँ,
अनन्त और भरपूर करती हूँ।
कदाचित वास्तव में इतना ना किया जा सके!
किंतु तुमपर लिखीं मेरी काल्पनिक कविताएँ पढ़कर
सम्भव है-
तुम्हें प्रेम हो जाएगा मुझसे
और इस तरह मेरी कल्पना
जीवंत हो उठेगी!
-आरती मानेकर ‘अक्षरा’

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